...

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"स्वप्न साकार"
सपने पलते हैं, नन्हीं बूंदों नुमा,
पलकों से तकियों पे उतर,
मिलते हैं भोर और शामों में अक्सर।

वक्त के साथ बदलते हैं रूप अपना,
देर तक देखती हूं,
शायद पहचान पाऊं, उनका अर्ध निर्मित स्पर्श।

भ्रम का आंचल ओढ़,
झांकते हैं मासूमियत से,
कुछ कह न दूं, कहीं नकार न दूं, उनके धरा और अर्श।

फ़िर मुस्कुरा देती हूं अठखेलियों पर,
व्यर्थ हैं सब बदलाव उनके, जानती हूं,
'स्वप्न साकार' के अस्तित्व की कल्पना, सर्वत्र ही है अनर्थ।

© प्रज्ञा वाणी