बस इतना करना कान्हा
सुरज के ताप से जलती वसुंधरा
जब बारिश की बुंदों से खिलती है
तब बंजर सी इस धरती पर
नव जीवन की कोपल पलती हैं
होता है नया सवेरा कहीं
पर्वत के पीछे से
जब नवकिरणें नई आशा के साथ उतरती हैं।
बनूं मैं भी सुरज के ताप सी और
धरती के आंचल सी
खिलुं कोमल माटी पर उगते फूलों सी
महकाती रहुं अपनी खुशबू से जग सारा।
बस इतना करना कान्हा
के बनूं चंचल नदी जैसी
दृढ़ बनूं पर्वत जैसी।
कौमल मत बनाना कान्हा
बस इतना करना
ज्योति अल्याहण
© All Rights Reserved
जब बारिश की बुंदों से खिलती है
तब बंजर सी इस धरती पर
नव जीवन की कोपल पलती हैं
होता है नया सवेरा कहीं
पर्वत के पीछे से
जब नवकिरणें नई आशा के साथ उतरती हैं।
बनूं मैं भी सुरज के ताप सी और
धरती के आंचल सी
खिलुं कोमल माटी पर उगते फूलों सी
महकाती रहुं अपनी खुशबू से जग सारा।
बस इतना करना कान्हा
के बनूं चंचल नदी जैसी
दृढ़ बनूं पर्वत जैसी।
कौमल मत बनाना कान्हा
बस इतना करना
ज्योति अल्याहण
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