...

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दिसंबर की एक सुबह...!
ऊंघते हुए खिड़की...दरवाज़े
और सर्द हवाओं में
सूखे पेड़ों का
आपस में रगड़ खाकर
चरमराना...!

मानो... ताप ले रहे हों एक दूजे का,
इधर ठंठ से कांप रहा
दूब पे बैठा तुहिन कण
जैसे हरी मखमल में टंका हो
थरथराते... मोती का दाना...!

पूरी नींद से जागा है जग...
फिर भी दिल कहे... न...
रजाईयों से बाहर
अभी नहीं आना...!!

पंख झाड़कर उठी बया
टिटहरी... गाए सुर में गाना
रात की ओस झाड़कर
उठ बैठा...
शाख पर झूलता
वो गुलाब़ी-गुलाब़
कहता जीवन नाम इसी का...
हर हाल....
मुस्कुरा कर खिलना,
और महक बिखरा जाना...

सूरज ने छिड़का है होश...
नव पल्लवों की अधखुली आँखों में
दिख रही भोली सी चमक...
दरख़्त बन जाने का जोश

मुँह खोले ताक रही भौचक गिलहरी
वृक्षों की फुनगियों पर
आ बैठा है रंग सुनहरा...
करता है जो मन को
मदहोश...

जागो... कर्मठ...
त्याग आलस्य...राह देखता है तेरी
हिमगिरी शिखर...
राह देखती... समंदर के तल पर बैठी सीपी...
उठ राह देखता है तेरी...
हो कर के बे-सब्र जमाना...

फिर मिला दिन का एक कोरा पन्ना
फिर तुझ को है...
धूप का रंग मिलाकर ...
जीवन के सब रंग...
इस पन्ने में है भर जाना!!