...

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गुनाह-ए-मोहब्बत
जल रहा तन-बदन, हर तरफ धुँआ-धुँआ सा है,
ऐ-दिल-ए-बेक़रार, आख़िर तुझे हुआ क्या है।

किसकी तस्वीर बसी निगाहों में, याद जेहन में,
तड़पती रात में जागे रहे, तुझे और मिला क्या है।

इक़ उम्र गुज़री हुए ख़ता को, अब तलक़ ये सज़ा,
चीखती खामोशियाँ, सिसकती, और क़ज़ा क्या है।

तू भी था मंजूर-ए-नज़र, नूर-ए-चश्म-ए-निगाह उनकी,
मेरे क़ज़ा-ए-अज़ाब, बेरुख़ी की उनकी वज्ह क्या है।

एक हसरत दिल की, लेकर आगोश तुम्हें, करूँ गुनाह,
इतना कह मुझसे, मोहब्बत-ए-गुनाह की सज़ा क्या है।
© विवेक पाठक