...

8 views

अहो, पाठक देवता
हे , पाठक देवता !
आप कहां हैं ?
कभी प्रेम में खोजवश , कभी पेज में ओजवश
खोजते व्यर्थ फिरते अपनी अपूरित आशा को
और ढूंढते रहते हो अपने मान की अभिलाषा को
'गिरि  को गिरीश हेरै , गिरिजा गिरीश को' की तरह
मैं आपका कामी हूं।

पर आप हैं!
जो इस भक्त की भावना को ठुकराते हुए,
अपनी नाक भौं  सिकुराते हुए,
कहीं से कहीं बहक जाते हैं।

क्योंकि भक्त तो हजार हैं ;
लेखक बेशुमार हैं
और सभी की एक ही मांग  कि मेरी कृति पढ़िए।

आप भी क्या करें!
लेखक बनने के दिवास्वप्न के यज्ञ मंडप पर
चावल , मिस्री और लड्डू के दाने हैं:
कौन चुने उतने ?
जो भावना के तिनके हैं।

बस जोगाराम बाबा की तरह
कर दिया आंख मूंदकर समीक्षा
सभी सुंदर , बहुत सुंदर,
नाइस का प्रसाद ले जाओ।

पर हे देव !
मुझे तो प्रसाद भी मिला
और आप तो वही काठ की मूर्ति हैं।

ज्ञान की कुंडलिनी शक्ति का संचार
तो हुआ नहीं आपमें
फिर आपने वही धरे के धरे...