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अहो, पाठक देवता
हे , पाठक देवता !
आप कहां हैं ?
कभी प्रेम में खोजवश , कभी पेज में ओजवश
खोजते व्यर्थ फिरते अपनी अपूरित आशा को
और ढूंढते रहते हो अपने मान की अभिलाषा को
'गिरि  को गिरीश हेरै , गिरिजा गिरीश को' की तरह
मैं आपका कामी हूं।

पर आप हैं!
जो इस भक्त की भावना को ठुकराते हुए,
अपनी नाक भौं  सिकुराते हुए,
कहीं से कहीं बहक जाते हैं।

क्योंकि भक्त तो हजार हैं ;
लेखक बेशुमार हैं
और सभी की एक ही मांग  कि मेरी कृति पढ़िए।

आप भी क्या करें!
लेखक बनने के दिवास्वप्न के यज्ञ मंडप पर
चावल , मिस्री और लड्डू के दाने हैं:
कौन चुने उतने ?
जो भावना के तिनके हैं।

बस जोगाराम बाबा की तरह
कर दिया आंख मूंदकर समीक्षा
सभी सुंदर , बहुत सुंदर,
नाइस का प्रसाद ले जाओ।

पर हे देव !
मुझे तो प्रसाद भी मिला
और आप तो वही काठ की मूर्ति हैं।

ज्ञान की कुंडलिनी शक्ति का संचार
तो हुआ नहीं आपमें
फिर आपने वही धरे के धरे रह जाएंगे
कौन पूछेगा आपको
कौन खोजेगा आपको
झूठे काठ के देवता को
कौन सर नवाएगा!

उस मान की अभिलाषा का क्या होगा?
जो आपने भी पाल रखे हैं।
हे प्रभु , भक्त तो भगवान को खोज ही लेगा
क्योंकि उसे बस एक ही आराध्य देव चाहिए:
भक्त तो एक देव दर्शन से तृप्त हो जाते हैं
पर देवता तो हजार भक्तों से भी तृप्त न हो पाएगा।

हां , ऐसे नए अंकुरित देवता को भीड़ रहती है।
और बाद में
जानवरों से ही दर्शन होता है उनका
दिन और रात में।
फिर आप बच जाएंगे खंडहर में
जहां कोई भी ना आएगा।

हे देव अपने धर्म का पालन कीजिए
अपने काठ की  देह में
पाठज्ञान-रूह पीजिए ,
पहचानिए अपने भक्त को जो अपने लेखप्रेम से
आपके ह्रदय को स्पर्श करना चाहता है ।

और उससे निचुड़े हुए मिठास आपको भाएंगे।

हे उच्छ्रिङ्खल !
आराधक और आराध्य के पठन-पाठन संबंध को
सम्पूर्ण मनोयोग से ईशत्व का तेज धरो।

हे तेजहीन  विबुध!
अपनी लेखनी की निरंतरता का योग न करो
यह हठयोग तेरे ज्ञानयोग को अवरोध देगा।
भक्त और भगवान के आचार को पहले सीख लो।
फिर भक्त बनना या भगवान
कोई अंतर ना होगा।

यह सच है कि
तुम नहीं हो तो हम भक्तों की  पूछ ही क्या है।
पर भगवान को भी बार बार भक्त बनना पड़ता है।
सो स्व मत्व को छोड़ पाठभक्ति की राह प्रशस्त करो
देवत्व से ईशत्व के मार्ग को आश्वस्त करो।
ॐ पाठकाय नमः ॐ पाठकाय नमः।




© शैलेंद्र मिश्र 'शाश्वत'