बुआ का नैहर आना
बुआ जब भी नैहर आती
गांव पहले से जड़ा ज्यादा बदल गया होता
बुआ भी तो कोई सात आठ साल बाद ही आती
बुआ का आना गांव में बसंत की तरह उतरता
भतीजे बुआ के कंधे से एक हाथ ऊपर लंबे हुए मिलते
बुआ गांव के कितने की चक्कर लगाती
जब जिस घर जाती
भौजाई पैर धोती
सिंदूर लगाती
ठिठोली करती
चटक रंग पहिना करिए बबुनी
जल्दीये बूढ़ा जाना है क्या
आठ दस साल बाद नैहर आई लड़की
दीवारों को छू कर बतिया रही है
खोज रही है खपरा वाला घर जो पक्का हो गया है
बगीचे में अपने पसंद के आम जामुन का पेड़ देखने को हुलस रही
संजोग से जो गांव की दूसरे घर वाली जो बेटी आई हो उसी वक्त
दोनों नंगे पांव एक दूसरे की तरफ भागती
किसी पगडंडी पर बैठी देर तक विलापती
धान के खेत का बालियां कांपती
मुझे नहीं पता मेरे बचपन की बड़ी वाली बेटियां जब मिलती तो इतना क्यों रोती
उनके दुख सुख में महीन अंतर होता
ये पुरानी कुर्सी पुराने चौकी को भी अपने नेह से भर देती
बदल सी गई है बुआ
अब पहले जैसी खूब तीखा नहीं खाती
फीकी दाल की आदत हो चली है
प्याज पकोड़ी पर कटोरी भर चटनी चाट जाने वाली बुआ कितनी धीमी और चुप हो गई थी
ये जितने दिन नैहर रहती एक जगह न ठहरती
सब घर की नई दुल्हन से मिल आती
चचेरा भाई के चार महीना का बच्चा मीस देती
भाभियों के रखी साड़ियों में लगा देती फाल
हाथ सिलाई से आस पड़ोस के नवजात बच्चों का झबला सील कर रख देती
ये रहती तो दुआर की गाय खूब दूध देती
अस्कावनी माई का टीका सिंदूर कर के लड़के बरियाती जाते,
बुआ लटपट से दूल्हा परिछ आती
गांव में बेटियों के परिचय नहीं होते
वो बेटियां होती है
घर से बाहर तक बोलती बतियाती
ये लंबे समय नहीं रुकी कभी नैहर
पंचाग देख जल्दी ही जाने का दिन बन जाता
अतिदार पटीदार की भौजाई इनके खोइछ में
ब्लाऊज पीस कोई साड़ी डाल देती
इनका जाना सुन आस पास की बहनें कॉपी में इधर उधर का गीत लिखवाने आ जाती
लड़कियां चली जाती
भतीजे का मुख चूम
भाभी को अंकवारी भर
मां के फोटो में अपनी आंख सूखाते
इनके जाते ही बिसुक जाती दुआर की गाय
बैल हल जोतते जल्दी थकते
सब चिड़िया चुनमुन पता नहीं कहां लुका जाते
तमाम बगीचे से होती पक्की सड़के
किसी लाल बस से बेटियों को लेकर चली गई है
रात हहराकर गिरी हरे पेड़ की कोई डाली पता करो
बेटियां बहनें उदास किसी परेशानी में तो नहीं..
गांव पहले से जड़ा ज्यादा बदल गया होता
बुआ भी तो कोई सात आठ साल बाद ही आती
बुआ का आना गांव में बसंत की तरह उतरता
भतीजे बुआ के कंधे से एक हाथ ऊपर लंबे हुए मिलते
बुआ गांव के कितने की चक्कर लगाती
जब जिस घर जाती
भौजाई पैर धोती
सिंदूर लगाती
ठिठोली करती
चटक रंग पहिना करिए बबुनी
जल्दीये बूढ़ा जाना है क्या
आठ दस साल बाद नैहर आई लड़की
दीवारों को छू कर बतिया रही है
खोज रही है खपरा वाला घर जो पक्का हो गया है
बगीचे में अपने पसंद के आम जामुन का पेड़ देखने को हुलस रही
संजोग से जो गांव की दूसरे घर वाली जो बेटी आई हो उसी वक्त
दोनों नंगे पांव एक दूसरे की तरफ भागती
किसी पगडंडी पर बैठी देर तक विलापती
धान के खेत का बालियां कांपती
मुझे नहीं पता मेरे बचपन की बड़ी वाली बेटियां जब मिलती तो इतना क्यों रोती
उनके दुख सुख में महीन अंतर होता
ये पुरानी कुर्सी पुराने चौकी को भी अपने नेह से भर देती
बदल सी गई है बुआ
अब पहले जैसी खूब तीखा नहीं खाती
फीकी दाल की आदत हो चली है
प्याज पकोड़ी पर कटोरी भर चटनी चाट जाने वाली बुआ कितनी धीमी और चुप हो गई थी
ये जितने दिन नैहर रहती एक जगह न ठहरती
सब घर की नई दुल्हन से मिल आती
चचेरा भाई के चार महीना का बच्चा मीस देती
भाभियों के रखी साड़ियों में लगा देती फाल
हाथ सिलाई से आस पड़ोस के नवजात बच्चों का झबला सील कर रख देती
ये रहती तो दुआर की गाय खूब दूध देती
अस्कावनी माई का टीका सिंदूर कर के लड़के बरियाती जाते,
बुआ लटपट से दूल्हा परिछ आती
गांव में बेटियों के परिचय नहीं होते
वो बेटियां होती है
घर से बाहर तक बोलती बतियाती
ये लंबे समय नहीं रुकी कभी नैहर
पंचाग देख जल्दी ही जाने का दिन बन जाता
अतिदार पटीदार की भौजाई इनके खोइछ में
ब्लाऊज पीस कोई साड़ी डाल देती
इनका जाना सुन आस पास की बहनें कॉपी में इधर उधर का गीत लिखवाने आ जाती
लड़कियां चली जाती
भतीजे का मुख चूम
भाभी को अंकवारी भर
मां के फोटो में अपनी आंख सूखाते
इनके जाते ही बिसुक जाती दुआर की गाय
बैल हल जोतते जल्दी थकते
सब चिड़िया चुनमुन पता नहीं कहां लुका जाते
तमाम बगीचे से होती पक्की सड़के
किसी लाल बस से बेटियों को लेकर चली गई है
रात हहराकर गिरी हरे पेड़ की कोई डाली पता करो
बेटियां बहनें उदास किसी परेशानी में तो नहीं..