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झील के किनारे
झील के किनारे बैठी,
सपनों के नाव में,
मैं बनाती रही
कई ख्यालों के कारवें
सूर्य की रश्मियां हो या
हो चंद्र की कलाएं
हो सर्द हवा या कि
फिर लू के बहते थपेड़े
मैं नहीं बिखरने दे सकती
‘जागती आंखों’ के स्वप्न
चूर होने नहीं मैं दे सकती
अपने जीवन का ये दर्प.
मैं झील के किनारे
निर्जन रात्रि विहार में
ढूंढती हूं वो प्रकाश स्तंभ
जो डूबने से ‘मानस भंवर’ में
बचा ले मेरी आंखों का स्वप्न.
© Ranjana Shrivastava
सपनों के नाव में,
मैं बनाती रही
कई ख्यालों के कारवें
सूर्य की रश्मियां हो या
हो चंद्र की कलाएं
हो सर्द हवा या कि
फिर लू के बहते थपेड़े
मैं नहीं बिखरने दे सकती
‘जागती आंखों’ के स्वप्न
चूर होने नहीं मैं दे सकती
अपने जीवन का ये दर्प.
मैं झील के किनारे
निर्जन रात्रि विहार में
ढूंढती हूं वो प्रकाश स्तंभ
जो डूबने से ‘मानस भंवर’ में
बचा ले मेरी आंखों का स्वप्न.
© Ranjana Shrivastava
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