वस्ल की चाह
हां,,मै भी इक रोज खुद को बेहद सजाऊँगी,,,
फलक के अंजुम,,अपनी ओढनी मे लगाऊंगी,,
माहताब से उधार लेकर,,उसकी सफाक रौशनी,,
उसके नूर से,,,मासुम चेहरा अपना चमकाऊँगी,,
सुरमई शाम से,,थोडी जाफरानी रंग लेकर,,
लबो के तब्बसुम को जाफरानी बनाऊँगी,,,,
तब तुम आना मेरे महबूब,,,वस्ल की चाह लिए,,
जब बेजान जिस्म को मै जुही के बेलो से महकाऊँगी,,
सुपुर्द-ए-खाक हो जाए ये बदन,,बस यही हसरत है,,
तुम्हारे दिल मे बस अपनी मोहब्बत छोड़ जाऊँगी,,,
© kuhoo
फलक के अंजुम,,अपनी ओढनी मे लगाऊंगी,,
माहताब से उधार लेकर,,उसकी सफाक रौशनी,,
उसके नूर से,,,मासुम चेहरा अपना चमकाऊँगी,,
सुरमई शाम से,,थोडी जाफरानी रंग लेकर,,
लबो के तब्बसुम को जाफरानी बनाऊँगी,,,,
तब तुम आना मेरे महबूब,,,वस्ल की चाह लिए,,
जब बेजान जिस्म को मै जुही के बेलो से महकाऊँगी,,
सुपुर्द-ए-खाक हो जाए ये बदन,,बस यही हसरत है,,
तुम्हारे दिल मे बस अपनी मोहब्बत छोड़ जाऊँगी,,,
© kuhoo