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पहचान
ज़माने की भीड़ में वही खो जाता है,
जिसकी अपनी कोई पहचान ना हो।
अपनी धुन में रास्ता सबके लिए वही बनाता है,
जिसको दुनिया का ज्ञान और खुद पे अभिमान ना हो।
ठोकर खाकर बार बार वही गिरता है,
जिनके पास यादों के निशान ना हो।
पर्वत पे चढ़ने का साहस वही रखता है,
जिसको लगता यह डर कोई इम्तिहान ना हो।
आदमी आज सिर्फ़ वही अकेला है विवेक,
जिसके पास ज़िन्दगी को शायरी बनाने का समान ना हो।
© विवेक सुखीजा
जिसकी अपनी कोई पहचान ना हो।
अपनी धुन में रास्ता सबके लिए वही बनाता है,
जिसको दुनिया का ज्ञान और खुद पे अभिमान ना हो।
ठोकर खाकर बार बार वही गिरता है,
जिनके पास यादों के निशान ना हो।
पर्वत पे चढ़ने का साहस वही रखता है,
जिसको लगता यह डर कोई इम्तिहान ना हो।
आदमी आज सिर्फ़ वही अकेला है विवेक,
जिसके पास ज़िन्दगी को शायरी बनाने का समान ना हो।
© विवेक सुखीजा
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