...

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गज़ल
मुहब्बत हो गयी है अब मुझे रुसवाईयों से क्या,
क़लन्दर को तुम्हारी दहर और रानाईयों से क्या।

अजल से हो मुहब्बत ये मुहब्बत का तक़ाज़ा है,
ये दरिया जानलेवा है मगर गहराईयों से क्या।

हुआ नाज़ा कमाल-ए-इश्क़ भी ज़ात-ए-मुकम्मल पर,
तू हाल-ए-इश्क़ में ग़र्क़ां तुझे तन्हाईयों से क्या।

मकीं जो क़ल्ब में उल्फ़त अदा-ए-यार हो जाए,
जिसे दिल देख लेता है उसे बीनाईयों से क्या।
© ishqallahabadi🖋

क़लन्दर = बैरागी
दहर = दुनिया
अजल = मौत
नाज़ा = जिस पर गर्व हो
कमाल ए इश्क़ = मुहब्बत की आख़िरी मन्ज़िल
ज़ात ए मुकम्मल = ऐसी हस्ती जिसमें कोई कमी न हो
ग़र्क़ा = डूबा हुआ
मकीं=बसना
उल्फ़त = मुहब्बत
क़ल्ब = दिल
बीनाई= देखना