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ग़ज़ल
राधा राणा की कलम से...,✍️
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उलझनों में फंसी ज़िंदगी।
हमको तो नी जची ज़िंदगी।

इक नहीं रंग आता नज़र,
जबकि है सतरंगी ज़िंदगी।

वक्त पर काम आते नहीं,
रिश्तों की है ठगी ज़िंदगी।

ग़म के सागर में डूबी रही,
कब किनारे लगी ज़िंदगी।

एक दिन छोड सब जाएगी,
कब हुई है सगी ज़िंदगी।

212 212 212