...

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दिल का हाल
'दिल का हाल'

मैं ख़ुद उलझा-सा हूँ, दूसरों को कैसे सुलझा सकूँगा
तुम यकीं मानो या न मानो, मैं यकीं नहीं दिला सकूँगा।

मैं अब ख़ुद में ख़ुद ही को मार रहा हूँ,
दूसरों को मैं अब कहाँ मार सकूँगा?

अफ़वाह है ये की मुझे इश्क़ से निज़ात मिल गयी है,
आज़ार पुराना है, मैं अब इसे साथ लेकर ही जी सकूँगा।

मेरे पैकर के रोम रोम पर अब उसका ही हक़ है,
मैं अपना कह भी दूँ, तो उसे नाराज़ नहीं कर सकूँगा।

मेरे जीते जी उन लम्हों को कौन मिटा सकेगा,
ज़ेहन-ओ-दिल में जो है, मैं उसे भुला नहीं सकूँगा।

तुम तो कह कर चल दिये, 'मुझे प्यार नहीं तुमसे'
मैंने बात को सुन तो लिया, पर दिल को बता नहीं सकूँगा।

मेरे दिल का हाल अब ख़ुद ख़ुदा भी न जाने 'शाश्वत',
उधार की फ़नकारी ली है, आदत में कैसे शुमार कर सकूँगा?


~शाश्वत







© Shashwat