...

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दर्पण से झांकती सिर्फ परछाई है
#दर्पणप्रतिबिंब
बिंब निहारता मैं खुद ही से कहता
क्यूं मिलता नहीं मुझसे मेरा चेहरा
वो कुछ भोला सा दिख रहा पर गलत नहीं
पर लगता मुझमें बुद्धि की अधिकाई है

दर्पण से झांकती सिर्फ परछाई है
सच में दाग-धब्बे की बातें कब उसे समझ आई है
सूरत श्रृंगार से सजाती रहती वह महफ़िलें
बेदर्द वो दर्द की बात कब उसे समझ आई है

पेश कर देती तस्वीरें सामने सूरतें जो आई है
बिना भेद कसर के मुलाकात कराता वहीं बढ़ाई है
जिस्म के दागों को लिबासों में छुपाती
वरना राह किसे कब समझ आई है...।


© सुशील पवार