...

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उमर
पैरो में पायल थी
माथे पर चंदन,
कितने खुशमिजाज दिन थे वो
जब नंगे पाव घुमा करती थी आंगन-आंगन।

पर उमर कहा समझती है,
बचपन ज़िंदगी भर कहा चलती है,
कितनी जल्दी सिखा दिया इसने चलना और बोलना
खिलौनों से नाता टूटा और किताबो से हुआ मिलन।

कुछ सपने सजाने लगी थी,
मैं भी दीयऐ जलाने लगी थी
पर हवा को मंजुर नहीं थी रोशनी को घर लाना
और उमर चाहती थी जिम्मेदारियां को गले लगाना।

आज इतनी बड़ी हो गई हु
की मां-बाप डरने लगे,
बेटी की लाज रखना
एसी दुवा करने लगे।

ऐ उमर तु कितने लोगो की जान लेगी
लोटा दे बचपन और सरारते
तु इनका क्या करेगी?
ऐ उमर, और कितनी बेरहम बनेगी?