क्या मर चुकी हैं आत्माएं ??
विश्वास के पहरों में बांध के
छल प्रपंच रचते हो
वास्तविकताओं को ढांक के
मिथ्या भाषी बनते हो
रख के ताक पर हर बंधन
स्वार्थ सिद्ध करते हो
क्या यही पर्याय जीवन का
ईर्ष्या-द्वेष भाव मन रखते हो??
मन नहीं नियंत्रित
बहे जा रहा अहम् के बहाव में
सही गलत सब छोड़ के
ढकोसलों के प्रभाव में
आडम्बरों को बना जीवन मंत्र
अपना अस्तित्व गढ़ते हो
'मैं' की लालसा बढ़ गई इतनी
'मैं' के समक्ष किसको समझते हो ???
क्या कभी हम स्वयं गलत नहीं हो सकते....
क्या कभी हम स्वयं झूठे नहीं हो सकते...
ठहर के एक घड़ी सोचना
क्या मर चुकी हैं आत्माएं??
जो कभी स्वयं से प्रश्न करती नहीं...
जो कभी स्वयं दुखती नहीं
किसी को मर्म देकर ...
किसी का तिरस्कार कर...
किसी को छलकर..
तो कभी स्वार्थी बनकर..
क्या मर चुकी हैं आत्माएं???
© vineetapundhir