मानव…!!!
पल-पल पर होता शोषण
पग-पग पर मिलती पीड़ा
कण-कण होता जीवन
फिर कहाँ है वो नर नारायण
कहाँ है वो नील-कण्ठ-विषधारी
कलेजे मे कटार सी है
बसन्त से बहार छीन गयी
हरियाली सी ज़िन्दगी सुलग गयी
संत-असंत हो गया
मन-मस्तिष्क परछाईं-सा-परेशान है
बिलख है रहा तन-मन
जमाने में अपनी ही खोज है
लगता हर दम अपने पे बोझ है
शब्द बेज़ुबान है
आकार-निराकार सा
ज़िन्दगी-जहांनुम सी
और तन-मन में भी ख़ौफ है
आग सा सुलग रहा दिल
ज़िन्दंगी सोच रही सच को
सज्जन-दुर्जन सा बन गया है
जीवन वन मानुष सा हो गया है
शायद राम -हरि-कृष्ण भी ख़फ़ा है .!!!
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