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सीमा खंडन : गंगा संवाद
आज मैं जाऊं कि कैसे,
तारिणी तेरे तीर पे,
आज मिलने आ गई तू,
मुझसे सीमा चीर के।
रे क्षितिज बतला दे मुझको,
सांझ है कि भोर है,
किस तरफ़ है मेरी गंगा,
रे गगन किस ओर है।
है रवि आया कि द्वारे,
आंच उसकी आ रही,
अटखेलियां करते हैं नभचर,
घटा काली छा रही।
आज मैं बैठूं दवारे,
जैसे कि कश्मीर में,
आज मिलने आ गई तू,
मुझसे सीमा चीर के।।१।।
आज मैं जाऊं कि कैसे.....

किसने है छेड़ा कि तुझको,
देव, मानव कौन है,
कहता है स्वर्ग का अधिपति,
दूत मेरे मौन हैं।
शुबहा तुझपे न है देवी,
जाने कितना रंग है,
मैं समझता हूं कि ये,
मानव का कोई ढंग है।
या कि पाया तू ने अपनापन,
मेरी तहरीर में,
आज मिलने आ गई तू
मुझसे सीमा चीर के।।२।।
आज मैं जाऊं कि कैसे.....

पाप को धुलने मैं जाता,
था तेरे ही द्वार पे,
या कि जब जीवन की नैय्या,
अटकी हो मझधार में।
सुन के मेरी आह,
मचली भी तो तेरी धार थी,
इस पार तेरा काम क्या,
तू ठीक थी उस पार थी।
करने तू पापी को पावन,
आ गई इस भीर में,
आज मिलने आ गई तू
मुझसे सीमा चीर के।।३।।
आज मैं जाऊं कि कैसे.....

है मेरी सीमा असीमित,
है मेरा...