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रेत का समुन्द्र
सूखे बाबुल सा खड़ा हूँ.
टुकड़े तुकाराम कर डेझ रहा हूँ.
आगे उठोत रेत का समुन्दर. मेरे
सामने हैं
. जबकि पीने के लिए पानी का एक भी कतरा खि दिखता नहीं हैं...
दिखते हैं ख़्वाबों मे आज भी वो सब्ज़बाग़ और अंगूरो के लहल्हाते हरियाले खेत...... और ज़ब खुलती हैं आँख ख्वाब बिखरता हैं. और जो देखा था ऐसा बाहर कुछ भी नहीं हैं
टुकड़े तुकाराम कर डेझ रहा हूँ.
आगे उठोत रेत का समुन्दर. मेरे
सामने हैं
. जबकि पीने के लिए पानी का एक भी कतरा खि दिखता नहीं हैं...
दिखते हैं ख़्वाबों मे आज भी वो सब्ज़बाग़ और अंगूरो के लहल्हाते हरियाले खेत...... और ज़ब खुलती हैं आँख ख्वाब बिखरता हैं. और जो देखा था ऐसा बाहर कुछ भी नहीं हैं
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