...

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"वजूद"

रौनकों से मायूस मेरे ख़त,
तवज्जो ज़ार दिखते हैं।

बहुत वक्त के बाद मुसाफिर,
मेरे राज़दार दिखते हैं।

मोहलत ना मिली ख़ुदाया तेरे ताबीजों कों,
मन्नतों में लिपटे वो बेकरार दिखते हैं।

उसूल-ए-दुनिया टूटते हैं दर-बदर,
मेरे नसीबों में वही सरताज दिखते हैं।

लकीरों की शक्ल में सिमटे बेहया,
यूं क़तरा-ए-मायूसी मेरे सरोकार दिखते हैं।

ना हद ना बेहद बस रुकी-सी सांसे,
मेरे हिस्से की ज़मीनों में बंजर बेज़ार दिखते हैं।

वजूद पे ना आता तो मैं भी चुप रहता,
इतने ख़ामोश जख्मों ग़म मेरे यार दिखते हैं।
© प्रज्ञा वाणी