...

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कभी मैं भी तुम्हारी दुनियॉं था...
उम्मींदों की ऐसी बस्ती में दो-चार क़दम हम साथ चले थे
रातें कुछ जाग कर काटीं कुछ ख़ो ऑंख़ो में हम भी गए थे
तुम भी तन्हां, तन्हां हम थे कुछ बातों में रह से गए थे
मेरी दुनियॉं तुम थी अपनीं, दुनियॉं तुम्हारी अब हम ना रहे हैं

करते हो काम छुपा कर मुझसे , कहता कुछ हूॅं लड़ने लगते
प्यार-मोहब्बत बातें सारी, अब क्यों लगता है भूल चले थे
उम्मींदों की ऐसी बस्ती में दो-चार क़दम हम साथ चले थे
रातें कुछ जाग कर काटीं कुछ खो ऑंख़ो में हम भी गए थे

जब भी मैं पास तुम्हारे आऊं तुम कहते हो दूर रहो बस !
क्या प्रेम तुम्हारा छूने से है ? मैं कहती हूॅं दूर रहो बस !
अभि तुमको छूने से नहीं, ये एहसास तुम्हारे पास रहूॅं बस !
था तुम्हारा प्रेम कभी जो, अभि बड़ा कमज़ोर बहुत बस !

उम्मींदों की ऐसी बस्ती में दो-चार क़दम हम साथ चले थे
रातें कुछ जाग कर काटीं कुछ ख़ो ऑंख़ो में हम भी गए थे

सजाते हो यूं निख़र-निख़र कर, निख़र कर आना अच्छा है
निख़रो अपनी सीरत से कभी, वो निख़र कर आना अच्छा है
था प्रेम तुम्हारे दिल में मेरा, वो निख़र कर आता अच्छा था
उम्मींद तुम्हारी दिल को मेरी, ना उम्मींद जो होता अच्छा था

एक भरोसा तुमसे मेरा, वो एक भरोसा तुम कर लेते
दिल में मुझको अपने रखकर, दिल से मेरा साथ जो देते
अभि तुमको छूने से नहीं, ये एहसास तुम्हारे पास रहूॅं बस !
था तुम्हारा प्रेम कभी जो, अभि बड़ा कमज़ोर बहुत बस !

उम्मींदों की ऐसी बस्ती में दो-चार क़दम हम साथ चले थे
रातें कुछ जाग कर काटीं कुछ ख़ो ऑंख़ो में हम भी गए थे
© ✍️ अभिषेक चतुर्वेदी 'अभि'