...

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बहलाने की.....
जिंदगी के पहलुओं से निगाहे लङाते शाम हो गई
बैठा गुमसुम, खोया स्वविचारों में
अतीत के पन्ने पलटते शाम हो गई ।

अब जलते चिरगों का ही सहारा पा रहा हूँ
पर डर भी है,मिले न वो,यूँ अंत ना हो ऐसे.....इस ख्बाव की
अब उसका भी एहसास पा रहा हूँ

हर पहलु से अनज़ान, होकर हालात से भी बे-जान
यकीं नहीं होता अब भी उसका साथ पा रहा हूँ
सोंचा....., सोंचा की है जर्रे हवाओं तक की साजिश
यूँ बहलाने की.....
पर आज कदम-कदम पे उसका साथ पा रहा हूँ
कदम-कदम पे उसका साथ पा रहा हूँ...... ॥

© ya waris