...

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संभवतः प्रिय ...यही मौन, मेरा मोक्ष है...!
संभवतः... मौन ही मेरा मोक्ष है...!

रिक्तता के इस आखिरी छोर पर...
न अध्यात्म है...
न देवालयों का विभाजन।

परंतु उर के शून्य में नृत्य करती हुई
प्रेम-जिजीविषाएं...
बची हुई हैं अभी शेष...

अनंत और अंत के इस मोह से परे...
मेरा अस्तित्व...
अब विलुप्त होने की कगार पर है!!

हृदय और मस्तिष्क...
पा लेने और खो देने की
सभी सूचनाओं से पूर्णतः विमुख...

तुम' और 'मैं' के इन सभी गढ़े गए...
और अनकहे.. अनगढ़े
भावों के एकीकृत
हो जाने तक की यह यात्रा...

और उर के अलिखित पन्नों पर,
पसरा हुआ ये मेरी लेखनी का
अगूढ़ सा मौन...

"संभवतः प्रिय... यही मौन, मेरा मोक्ष है...."

गणित की सभी शाखाएं
नीरीह हैं
इस अंगीकरण के संयोजन के सम्मुख...

मन के इस अंकगणित में
एक और एक का योग
शून्य ही शेष बचा रह जाता है...

और रेखाओं के मस्तक पर
एक बिन्दु मात्र... भी नहीं आता...
रिक्तता ही शेष है...

वही रिक्तता...
जो मौन होते हुए भी वाचाल है

वही रिक्तता....
जो संपूर्ण ब्रह्मांड का सार है

इन्हीं रिक्तताओं में
"संभव" के बीज़ रोपे जाते हैं...
प्रतिक्षाओं के तप के उपरांत
हरहराती हैं प्रसव पीड़ाएं...

और उपज आते हैं...
अद्वैत... सच के वृक्ष... स्वयं शिव....
जीवन की संजीवनी बनकर...

मेरा मोक्ष....
मेरा मौन....

लंबी प्रतीक्षाओं के गर्भाशय में
प्रेम के प्रसव - पीड़ाओं की
यातनाएं कर रहा है....

विध्वंस की अथाह जलराशियों...
कोलाहलों के समुंदरों पर संयम के तट बना कर
सृजन... जिस का
एक मात्र लक्ष्य है....

हाँ.... आश्वस्त हूँ
कि मौन ही मेरा मोक्ष है....