...

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संभवतः प्रिय ...यही मौन, मेरा मोक्ष है...!
संभवतः... मौन ही मेरा मोक्ष है...!

रिक्तता के इस आखिरी छोर पर...
न अध्यात्म है...
न देवालयों का विभाजन।

परंतु उर के शून्य में नृत्य करती हुई
प्रेम-जिजीविषाएं...
बची हुई हैं अभी शेष...

अनंत और अंत के इस मोह से परे...
मेरा अस्तित्व...
अब विलुप्त होने की कगार पर है!!

हृदय और मस्तिष्क...
पा लेने और खो देने की
सभी सूचनाओं से पूर्णतः विमुख...

तुम' और 'मैं' के इन सभी गढ़े गए...
और अनकहे.. अनगढ़े
भावों के एकीकृत
हो जाने तक की यह यात्रा...

और उर के अलिखित पन्नों पर,
पसरा हुआ ये मेरी लेखनी का
अगूढ़ सा मौन...

"संभवतः प्रिय......