...

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त्याग
हां, मैं भी चाहता था नही छोड़ना
अपने घर को, अपने परिवार को,
अपने द्वार को, अपने बाजार को,
अपने मस्ती को, ये गहरी दोस्ती को,
अपने सुंदर से बस्ती को,
हां मैं भी चाहता था रहना, अपने मां के
लाड के साथ, अपने पिता के प्रेम के साथ,
भाई और बहन के मस्ती के साथ,
मैं भी नही रहना चाहता था जबरदस्ती के साथ,
पर क्या करूं ये तो जीवन का रीत ही है,
याद आते हमे अतीत के गीत ही है,
रामचरित मानस और रामायण से हमे ज्ञात होता है
श्री राम यूं ही नही श्री राम होते है।
क्या वो नही सकते पिता के वचन को तोड़ने
क्या वो नही सकते मर्यादा से मुंह मोड़ने
क्या वो नही सकते महल का सुख चैन में रहने
क्या वो नही सकते पिता दशरथ के राज्य संभालने
अरे, करने को तो वो कर सकते थे,
पिता के वचन को भी तोड़ सकते थे,
पर उन्होंने वैसा किया तो नही,
वनवास से मुंह मोड़के एक राजा का सुख लिया तो नही।
चले गए सब कुछ त्यागकर वनवास को,
पास न पाया अपने किसी भी दास को,
बस मां सीता और लक्ष्मण थे उनके साथ,
बाकी सब ने छोड़ दिया था उनका हाथ,
क्या दशरथ उन्हें रोके न थे
उन्हें जाने से टोके न थे
अरे हजार बार मना किए थे,
पर फिर भी राम गए थे,
अरे राम ऐसे ही श्री राम न बने
उन्होंने किए त्याग कई,
उनके इस किस्से का
खुद लिखे अनोखे भाग कई।।
अच्छा...