...

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हलचल मन की...
लाख कोशिशें जारी हों
संभाल कर रखने की,
कुछ रिश्ते
चटक ही जाते हैं
तकरार हो न जा जाए अपनों से ही,
इस मन की हलचल को..
इसलिए
हम बहुत समझाते हैं

दिल दुखता है
सर झुकता है
हृदयों को जोड़ने के,
फिर भी हम सपने सजाते हैं
उदासी मायूसी
लगी है तोड़ने में,
मगर..अपनी उम्मीदों से हम
मुख मोड़ नहीं पाते हैं

क्यों रिश्तों में
बगावतें हैं इतनी आजकल
खामोशियों में ही
सब क्यों बयाँ हो जाते हैं
शब्दों के भाव..
ज़ाहिर होने से पहले
अपने ही करीबियों से
उलझ से जाते हैं

निर्मोही होते स्वभाव
ये कैसा प्रचंड चक्रवात
अपनों के ही
आसपास उठाते हैं,
संभाले नहीं संभलते
दुःख के क्षण
व्याकुलता मन में
ऐसा उत्पात मचाते हैं....



© bindu