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क़ीमत ...
हां सही कहा !
अख़िर औकात ही क्या है मेरी
सुबह की चाय से
रात के खाने तक का सफ़र
हाथ जलने से
पैंर फटने तक का सफ़र
सबको खुशी देने का सफ़र
यहां फिर उस घड़ी की सुई का सफ़र
जो सिर्फ बिन रुके चलना जानती है
थमना नहीं
या फिर सबकी मनोदशा
को समझना और ठलने तक का सफ़र
अब मैं पूछना चाहती हुं
मैं क्यों ही समझूं
क्या तुमने
कभी अपने दिए ज़ख़्म गिनें है
अब मैं पूछना चाहती हुं
क्या तुमने मुझे कभी
इंसान जैसे देखा हैं
अब मैं पूछना चाहती हुं
मैं क्यों ही रिश्तों की मान रखूं
क्या तुमने कभी
रिश्तों की मर्यादा समझीं है
अब मैं पूछना चाहती हुं
नज़रो से वारती हुं न तुम्हे
कभी उस नज़र का मान रखा है
हाथों से खिलाती हुं न तुम्हे
कभी उन हाथों को प्यार से थमा है
हां सही कहा !
आखिर औकात ही क्या है मेरी
अपने आंसुओं की क़ीमत से
तुम्हारा मान जो रख रही हुं
तुम्हारी हैवानियत की क़ीमत
जो अदा कर रही हुं
तुम्हारी "औकात" जो बना रहीं हुं ...
© HeerWrites
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