...

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कीमत आजादी की ....
जाने कितनी कुर्बानी दे कर
आजादी को पाया है
तब जाकर कहीं हमने
ये तिरंगा फहराया है
माथे के सिंदूर उजड़ गए
राखी के बंधन चटक गए
जाने कितने ही वीर अपनी भरी जवानी में
हंसते हंसते फांसी पर लटक गए
समझना होगा इस पीढ़ी को कि
क्या खोकर क्या पाया है
तब जाकर कहीं हमने
ये तिरंगा फहराया है
खून से लथपथ दिल के टुकड़े का
"शव"जब मां के आंगन में आया है
बूढ़े पिता के कांधों ने
कैसे बेटे का बोझ उठाया है
मत पूछो उन मासूमों ने "बिना पिता के "
अपना बचपन कैसे बिताया है
तब जाके कहीं हमने
ये तिरंगा फहराया है
भूल न जाएं उनकी कुर्बानी को हम
इस लिए शब्दों की माला में
ये छोटा सा गीत पिरोया है

पर जरा सोचो .....

इतनी कुर्बानियों के बाद भी क्या हम वास्तव में पूर्ण रूप मे स्वतंत्र हो पाए हैं ?

नहीं ना ......

क्योंकि आज हम भले ही शारीरिक रूप से आज़ाद हैं किन्तु हमारी मानसिकता आज भी पश्चिमी सभ्यता की गुलाम है

हम अपनी महान "सनातन संस्कृति " को छोड़ उनकी संस्कृति को अपना आदर्श मानते हैं और उसी को अपना रहे हैं

फिर चाहें वो हमारा रहन सहन हो, पहनावा हो या फिर बोली भाषा सब में उनकी संस्कृति की ही झलक दिखाई देती है।

तो फिर क्या माइने हैं स्वतंत्रता के ?

जब तक हम अपनी वास्तविकता को नहीं जानेंगे और उसे नहीं अपनाएंगे तब तक हम खुद को आजाद नहीं कह सकते


जय हिन्द
जय भारत









© Rekha pal