...

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शीश महल और मैं
प्रिये, मैं खोज आया हूं शीश-महल
और चमकता हुआ शीशा ,
मेहराबी खिड़कियां :
विभिन्न आकारों के ,
जिससे आती हैं चमकती हुई
मद्धिम किरणें -  लाल , पीले , नारंगी ,
निकलती हैं जो कृत्रिम स्रोतों से ;
उनकी कीमत है दश हजार।

कुछ लोग भी थे वहां -
थे जींस पैंट पहने ,
थी गोटेदार सारियां
उनके मरमरी शरीरों पर।


प्रिये, मैं पूछा आया हूं - उनकी भाषा
जो बोलती थी अनसुनी-सी ,
मीठी , पर थी कुछ खट्टी भी ,
चटपटी और अटपटी ,
निकली थी हठात
उनके भाड़ा से , कमरों में -
बस , कहा था एक हजार ;
जो मैंने सुना था ,
उनके लाल डलिया के पास ;
भवन के अर्वाचीन दर... पर..
सटे थे मात्र दो छोरों से ।

नहीं मिली परंतु
तुम्हारी बोली ,
वसन और व्यस्तता ,
टोली की संस्कृति - खपरैल घरों में ।
एक तो है - पर नहीं मिला
सौ की चर्चा , हजार का प्यार ,
लाख की पुकार और भविष्य करोड़ों के!!


© शैलेंद्र मिश्र 'शाश्वत' 17/3/2012