...

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मित्रता...
सुख दुख के साथी रहें ,बचपन के वो यार।
छिपा छिपाई खेलना ,वो गेंदों की मार।

नहीं धर्म अरु जात का ,दिखा कभी संयोग।
मित्र सदा मन में बसें ,मन से मन का योग।

मित्र कभी लेता नहीं ,बस देने की बात।
जिसमें स्वारथ है बसा ,मित्र नहीं वह घात।

खुश्बू जैसे दोस्त हैं ,महकें चारों ओर।
रिश्तों की इस रात में ,मित्र ऊगती भोर।

शब्दों में गाली भरी ,मन में बसता प्यार।
मित्र जहाँ भी मिल गए ,मन होता गुलजार।

मित्र स्वर्ग की देन हैं ,मित्र धरा के रंग।
मित्र सदा मन में बसें ,बन जीवन के ढंग।

कृष्ण सुदामा मित्रता ,देती है सन्देश।
ऊँच नीच से दूर हैं ,मित्रों के परिवेश।