...

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"रात"
एक छोटी दुकां खुली होती,
जिसमें मिल जाता, लगभग जरूरत का हर सामान,
वहीं पास से लेनी होती आज्ञा, आगे जाने के लिए,
जो सिखाता, जीवन के सफर में अनुशासन,
वो दूर, कभी हरी, कभी लाल तो कभी संतरी होती,
बत्ती भरती रहती है विभिन्न रंग लगातार,
वह समय-समय पर गरजता उद्घोषक, जैसे
आकाशवाणी,
कराता एहसास परिवर्तन का, इंतजार खत्म होने का,
बीच की लाइन पर चुपचाप खड़ी एक लंबी सरंचना,
दर्शाती, ठहराव भी जरूरी है, संपूर्णता के लिए,
होता फिर आगाज, बाजे बजाते आती सवारी,
और रोम-रोम, सिहर जाता ठंडी हवा के झोंके से,
जो सिहरन प्रेमिका के आगमन में भी नहीं मिलती,

"रात हर जगह तन्हा नहीं होती।
रेलवे स्टेशन पर रात तन्हा नहीं होती"।।


#ख्वाबोंकासफर
© क्यों हो?pankaj!