...

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उलझन
निढाल हो कर
बैठ गई है वो
थक हार कर
कभी सोचा न था
कि सौदा करेंगे
लोग उनकी भी
जिनके खुद खुदा
बन बैठे हैं

बड़ी उलझन में हूँ
क्या सोची
और क्या हो गया
मेहनत सारी
नाकाम हो रही है
अश्क पलकों से
झर झर गिर रही है
जिन लाचार लोगों
कि उम्मीद बंधी थी
उनकी उम्मीदों पर
पानी फिर रहा है
कि कुछ लोग उनका
व्यापार कर बैठे हैं

कैसे मनाएं
क्या ही बताएं
कि ईश्वर के फरिश्ते हैं वो
समझो न मामूली तुम
एक दिन हिसाब
देना होगा
मत भटको चंद
सिक्कों के लालच
कि गुनाह भयानक
वो कर बैठे हैं
© स्वरचित Radha Singh

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