...

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किताबों की आवाज....
जबसे इंटरनेट का जमाना आया है
तबसे मेरी जिंदगी ही खत्म हो गई है
कहां एक वक्त था जब लोग
मेरे खातिर लड़ते थे झगड़ते थे
अब मेरी पूरी जिंदगी सूनसान हो गई है,

अब ना बातें करने को कोई
ना संग मेरे खेलने को कोई
एक नज़र भी उठा के देखे
ऐसे मिलने वालों की पड़ गई है कमी
अब तो मेरी जिंदगी बेरंग हो गई है,

मैं पड़ी एक कोने में
ना कोई दिलचस्प अब मुझको छूने में
सारे रिश्ते नाते तोड़, थाम किसी और की डोर
सब चले हैं मुझको छोड़
अब तो ना जाने मुझपर
कितने बरस की धूल जम गई है,

पढ़नी हो कोई कहानी या कविता
भेजना हो किसी को खत का कोई उपहार
या लिखने हो अपने दिल के उमड़ते कोई जज्बात
सबको हो गया है फोन प्यारा
और इंटरनेट की दुनिया न्यारी
और मेरी जिंदगी बस कचरे का ढ़ेर बन गई है,

कहते हैं मुझको रखने की जगह नहीं
कुछ दिन बाद फट जाऊंगी
तो मुझपर खर्च करने की जरुरत नहीं
मुझे बदले और आ जायेंगी
एक बार छूने के बाद मेरी जो
कीमत खत्म हो जाएगी
ऐसी सोच वाली दुनिया से मेरी जिंदगी
एक कमरे तक सिमट कर रह गई है,

उनको क्या मालूम मुझमें क्या है छुपा
हाथों से छूकर, होठों से चूमकर
मुझको सीने से लगा कर, दिल के हाल बता कर
मिलता कितना सुकून है
जिनको खबर उनसे पूछो
मुझको पाकर उनकी जिंदगी कितनी हसीन बन गई है।


© Sankranti chauhan