...

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खुद को अकेला पाता हूं
पथ पथ पर हार
मन को मार मार
चलें जा रहा हूं अकेला
अंतर में यहीं आसंका
कहीं न हों जाए कोई खेला
बधाई भी खुद ही
सहानुभूति भी
हार कर भी देखा
जीत कर भी देखा
दोनों ही में मैं अकेला
देखकर नीर नयन में मेरे
किसी को संदेह नहीं हैं
यद्यपि था काल समक्ष मेरे
मुझको ज़रा भय नहीं हैं
न कोई छत्र छाया भीड़ न भेला
साथ लिए दुखों का मेला
चलें जा रहा हूं अकेला
खुद को अकेला पाता हूं

© पं.रोहित शर्मा