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अंतर्जाल-ए-मोहब्बत
अंतर्जाल-ए-मोहब्बत

अब चेहरा कम अल्फाज़ ज्यादा पढ़ते लगे हैं
अल्फाज़ो ही अल्फाज़ो में इश्क़ गढ़ने लगे हैं

ढूंढे हैं सुकून विकलता-ए-दिल का वो अपना
ऐसे हैं वो अल्फाजों के ख्यालों में जीने लगे हैं

कौन कहां से हैं किधर का हैं कोई जनता नहीं
रहने वालें गावों के शहर का जो बताने लगे हैं

दिखती हैं उन अल्फाजों में खूबसूरत-ए-सूरत
वो पल भर की मुलाकातों में रिझाने में लगे हैं

ये इश्क़-ए-मोहब्बत का निराधार दौर हैं यारों
टूटे हुए दिल को समझाने में कई जमाने लगे हैं

अंतर्जाल के फेर में नहीं होती हैं सच्ची मोहब्बत
रूबरू की मोहब्बत को पाने में कई बहाने लगे हैं

© DEEPAK BUNELA