...

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ये हकीक़त भी कुछ फ़साना था।
वो अलग ही वक़्त था,
वो भी एक उम्र थी,
वो भी क्या ज़माना था,
जब निग़ाहों में किसी का ठिकाना था,
दिल से दिल का मिल जाना था,
हर पल कुछ सुहाना था,
बस ये हकीक़त भी कुछ फ़साना था।
हर लम्हे में इश्क़ का नज़राना था,
वो रूठना - मनाना था,
वो किसी की बाहों में दुनियां का समिट जाना था,
यूं आसमां के नीचे चांद - तारों की बातों में वक़्त का गुज़र जाना था,
बस ये हकीक़त भी कुछ फ़साना था।
वो घर के आंगन में बैठकों का दौर लग जाना था,
वो कुछ खो जाने पर बहुत कुछ मिल जाना था,
वह कुछ थोड़ा सा भी एक खज़ाना था,
बस ये हकीक़त भी कुछ फ़साना था।

© Anurag Dubey