...

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दर्द-ए-हिज्र: जुदाई का दर्द
मांगा नहीं रब से मगर ज़िक्र तुम्हारा ही था।
नाम लिया नहीं मैं पर फिक्र तुम्हारा ही था।

रात कटी है मेरी तेरे ख़्वाबों में ख़्यालों में!
दिल मे अक्सर दर्द-ए-हिज्र तुम्हारा ही था।
दर्द-ए-हिज्र: जुदाई का दर्द

तेरे आंखों की बस्ती में, रहता था मस्ती में!
जिंदगी की खुशी का बसर तुम्हारा ही था।

जीता था हरपल तेरी हंसी में तेरी खुशी में!
रहता था मुझमें वो अशिर तुम्हारा ही था।
अशिर: अभिमानी

सूरजमुखी जैसा दीवाना है तेरे दीदार का!
महज़ के खुश रहने का हुनर तुम्हारा ही था।
© महज़