...

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हाय मेरा रिश्ता....
अचानक एक दिन मेरा रिश्ता आया,
देखकर थोड़ा घबराया,,
पर मन ही मन फूला ना समाया।
पहले जरा शरमाया,
फिर नजरें झुकाकर थोड़ा मुस्कुराया।।
प्रगट हुए रिश्ते वालों ने,
लाखों सवालों के गोले मेरे सामने बढ़ाया।।
बेटा!,
क्या करते हो ?,
नौकरी!या करते हो खेतीबारी।
अगर नौकरी!तो प्राइवेट या सरकारी,
क्योंकि सारी डिग्री पूरी कर चुकी बेटी हमारी।।
नशा करते हो!,
शराब की या शवाब की।
कहीं हालत तो खराब नहीं होती जनाब की।।
कदमताल ठीक ठाक तो हैं,
कहीं बहकते तो नहीं।
या किसी और बला के लिए धड़कते तो नहीं।।
प्रश्नों का मंजर कुछ यूं गहराता गया,
हर एक शख्स मेरे अरमानों को ढहाता गया।।
सोचा अब तो बात आगे बढ़ेगी,
क्या पता था गाड़ी स्टेशन से पहले रुकेगी।
हर इम्तहान से दूर होता चला,
जो जुर्म हुआ उसे कैसे भूलता भला।।
थककर...
मैंने भी जवाब दिया..
मैं कोई सामान नहीं जो ये मोल कर रहे हो,
लंबी चौड़ी छोड़कर बोर कर रहे हो!।।
क्या ऐसे सवालों को भेदने का कोई यंत्र नहीं!,
ख्वाबों में भी कोई आए शायद अब कोई मंत्र नहीं।।
खैर छोड़ो.......
मैं फिर भी खुश हूं।।।
written by (संतोष वर्मा) आजमगढ़ वाले
खुद की जुबानी...

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