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मर्द भाग - 2
भाग - 2

कभी कभी बुझ जाता है वो दीप,
जो कई दियो को,
जलाने के काम आता है,
हट्टा कट्टा दुरुस्त खड़ा वो खम्भा,
कभी कभी ढह जाता है,
जब अहसास में कमी का नाम,
उसकी औरत का आता है,
जान है,
जहान है,
फरिस्ता है,
ये सारा चेहरा मर्द को ही क्यों डराता है,
समझ है उसे रिश्तो की,
पर रिश्तों के टूटने का दर्द,
कैसे वो खुद ही,
खुद के नाम कर जाता है,
कभी कभी तरस आता है मुझे,
अपने बाप पर,
तो कभी भाई का दिल कचोट जाता है,
जेवर में पैसे लाख लगे हो,
पर घर में पैसे चाहिए,
ये बाप को ही याद दिलाता है.....
बाटने को बस वफा नहीं बाटती,
रिश्तो को बाटने में,
ये खर्चा भी,
अहम भूमिका निभाता है,
जो मिल बाट के मर्द के,
चिथड़े चिथड़े खा जाता है....
© --Amrita

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