अंतर बस इतना है
अंतर बस इतना है की
बाबा खटिया पे बैठ हमे रेडियो पर गाने सुनाते थे,
आज स्पीकर और एलेक्सा के साथ सभी मनोरंजन करते जाते है।
अंतर बस इतना है की
पहले किताबो से पढ़ने पाठशाला को हम जाते थे,
आज इंटरनेट के माध्यम से लोग घर से पढ़ ले जाते है।
अंतर बस इतना है की
पहने शॉपिंग के लिए हम बाजार के चक्कर लगाते थे,
आज मॉल के माध्यम से हर चीज़ साथ जुटाते है।
अंतर बस इतना है की
पहले चार लोग बैठ सदा, हसी ख़ुशी बतलाते थे,
आज व्हात्सप्प, फेसबुक में हर बात को लोग बताते है।
अंतर बस इतना है की
स्वच्छ अभियान न होते हुए हम हवा स्वच्छ तब पाते थे,
आज अभियान के चलने पे भी घर-घर मरीज बन जाते है।
अंतर बस इतना है की
पेड़ सदा लगाते थे सब, हरा भरा था वातावरण,
आज सभी पेड़ो को काट, घरौंदा लोग बनाते है।
अंतर बस इतना है की
ऑक्सीजन तब मिली खुब और स्वस्थ लोग थे हर घर में,
आज पैसे पे न मिलती है मोहताज़ बन गए ऑक्सीजन के।
अंतर बस इतना है की
कुदरत के संग न खेलो ये आँख मिचौली का खेल,
ये कुदरत खेल रही है अब, कोरोना महामारी का खेल।
कोरोना नाम जो पड़ गया
सारांश यही था - "करो न " कभी
पर मनुष्य मनुष्य का न रहा
फिर प्रकृति का कोई मोल नहीं.....
अंतर् ज़रा सा था सही
पर बात बिगड़ गयी है अभी...
संभल जाओ ऐ दुनिया वालो
वसुंधरा पे करो न घात कोई
.......
स्मृति तिवारी
© Smriti's Tiny World
बाबा खटिया पे बैठ हमे रेडियो पर गाने सुनाते थे,
आज स्पीकर और एलेक्सा के साथ सभी मनोरंजन करते जाते है।
अंतर बस इतना है की
पहले किताबो से पढ़ने पाठशाला को हम जाते थे,
आज इंटरनेट के माध्यम से लोग घर से पढ़ ले जाते है।
अंतर बस इतना है की
पहने शॉपिंग के लिए हम बाजार के चक्कर लगाते थे,
आज मॉल के माध्यम से हर चीज़ साथ जुटाते है।
अंतर बस इतना है की
पहले चार लोग बैठ सदा, हसी ख़ुशी बतलाते थे,
आज व्हात्सप्प, फेसबुक में हर बात को लोग बताते है।
अंतर बस इतना है की
स्वच्छ अभियान न होते हुए हम हवा स्वच्छ तब पाते थे,
आज अभियान के चलने पे भी घर-घर मरीज बन जाते है।
अंतर बस इतना है की
पेड़ सदा लगाते थे सब, हरा भरा था वातावरण,
आज सभी पेड़ो को काट, घरौंदा लोग बनाते है।
अंतर बस इतना है की
ऑक्सीजन तब मिली खुब और स्वस्थ लोग थे हर घर में,
आज पैसे पे न मिलती है मोहताज़ बन गए ऑक्सीजन के।
अंतर बस इतना है की
कुदरत के संग न खेलो ये आँख मिचौली का खेल,
ये कुदरत खेल रही है अब, कोरोना महामारी का खेल।
कोरोना नाम जो पड़ गया
सारांश यही था - "करो न " कभी
पर मनुष्य मनुष्य का न रहा
फिर प्रकृति का कोई मोल नहीं.....
अंतर् ज़रा सा था सही
पर बात बिगड़ गयी है अभी...
संभल जाओ ऐ दुनिया वालो
वसुंधरा पे करो न घात कोई
.......
स्मृति तिवारी
© Smriti's Tiny World