मेरा दर्द
चाह तो उड़ने की आसमानों में थी...
मंज़िल को पाकर ऊँची उड़ान भरने की थी...
ख़ुश रहती थी वो अपने सपनों में ज़ी कर...
जाना ना कुछ और था इस जहां से निकलकर...
आया वो मोड़ जिसने ज़िन्दगी बदल दी...
कुतर कर पंख ज़िन्दगी जहन्नुम सी कर दी...
ग़ुम हो गयी खुशियाँ कहीं अँधेरो में...
बस नमी ही बची अब इन पलकों में...
वो मासूम अब सपने देखने से डरने लगी...
ख़ुदको सारी बातों का क़सूरवार कहने लगी......