...

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" ज़िन्दगी और मौत में फर्क "
ज़िन्दगी से मौत मेहरबान निकली दोस्तों,
ज़िन्दगी ने तिल-तिल मारा मौत ने एक झटके में।

ज़िन्दगी भर, ज़िन्दगी से लड़ते रहे ,
रोज हम पैदा हुए,रोज हम मरते रहे।

फुटपाथ से ही की शुरू,फुटपाथ पर ही ख़त्म की,
झोपड़ी में हम रहे और महल गढ़ते रहे।

न कोई बंगला,न गाड़ी,न कोई ओहदा बड़ा,
कुछ नहीं हासिल हुआ,हम काम क्या करते रहे।

था कहा जिनने गरीबी दूर होगी एक दिन,
वो हमारे सिर पे रख कर पांव ही चढ़ते रहे।

थे नहीं लायक़,महानायक उन्हें माना गया,
फिर उन्हें पूजा गया,फोटो-फ्रेम में मढ़ते रहे।

थे बड़े वो अनुभवी,जो लिखा-जीवन लिखा,
पीढियों-दर-पीढियां,हम पोथियाँ पढ़ते रहे।

हम हुए न पास,तो हम फेल भी हैं कब हुए,
हम किताबों में न उलझे,चेहरों को पढ़ते रहे।