सोचने लगे हैं लोग
बेहतर तो है , सोचने लगे हैं लोग
दुनियादारी की बातें
विडम्बना तो न सोचने वालों की है
मुसीबत मोल ले लेते हैं
जर जोरू और जमीन
काम आयेंगे एक दिन
खुद को
भला क्यूँ न सोचें ?
बेहतर तो है
सामाजिकता के बंधन , घर गृहस्थी
आखिर निभानी पड़ती है
गिरते है सड़क पर रोज़
सैकड़ो तो क्या ?
आखिर दूसरा कोई उठा ही देता है
ड्यूटी पर अगर समय से नहीं पंहुचे
तो बॉस थोड़ी ही मेहरबानी करेगा
अच्छा काम कहकर
बेहतर तो है
आखिर क्यूँ न सोचें ?
...
दुनियादारी की बातें
विडम्बना तो न सोचने वालों की है
मुसीबत मोल ले लेते हैं
जर जोरू और जमीन
काम आयेंगे एक दिन
खुद को
भला क्यूँ न सोचें ?
बेहतर तो है
सामाजिकता के बंधन , घर गृहस्थी
आखिर निभानी पड़ती है
गिरते है सड़क पर रोज़
सैकड़ो तो क्या ?
आखिर दूसरा कोई उठा ही देता है
ड्यूटी पर अगर समय से नहीं पंहुचे
तो बॉस थोड़ी ही मेहरबानी करेगा
अच्छा काम कहकर
बेहतर तो है
आखिर क्यूँ न सोचें ?
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