ज़िंदगी...!
ज़िंदगी संभालते-संभालते
गुलिस्तां-ए-जिंदगी यूँ ही बिखर गई!
रहा हादसों का ज़ोर इस कद़र
कि, रफ़्तार-ए-जिंदगी
यूँहीं करके दर-ए-गुज़र... गुज़र गई!!
न मिल सका हूँ ख़ुद से
न ख़ुदाई लिखी है सादिक मेरे नसीब में!
फ़लक की चाह में ज़मीं के हाथ से ...
गुलिस्तां-ए-जिंदगी यूँ ही बिखर गई!
रहा हादसों का ज़ोर इस कद़र
कि, रफ़्तार-ए-जिंदगी
यूँहीं करके दर-ए-गुज़र... गुज़र गई!!
न मिल सका हूँ ख़ुद से
न ख़ुदाई लिखी है सादिक मेरे नसीब में!
फ़लक की चाह में ज़मीं के हाथ से ...