...

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ज़िंदगी...!
ज़िंदगी संभालते-संभालते
गुलिस्तां-ए-जिंदगी यूँ ही बिखर गई!
रहा हादसों का ज़ोर इस कद़र
कि, रफ़्तार-ए-जिंदगी
यूँहीं करके दर-ए-गुज़र... गुज़र गई!!

न मिल सका हूँ ख़ुद से
न ख़ुदाई लिखी है सादिक मेरे नसीब में!
फ़लक की चाह में ज़मीं के हाथ से
ऐतबार-ए-जिंदगी भी करके
वादा-ओ-ज़िक्र, मुक़र गई!!

ऐ हब़ीब़ तू बता,है ये ग़ैब क्या बला...
है सभी को जिसकी तलाश...
हमें तो रास आ गई अब जमीं
ये उम्र कुछ तेरे वस्ल में कुछ हिज्ऱ में,
तक़रार-ए-जिंदगी,सर-ए-रह-गुज़र
गुज़र गई!!

होता है दिलों का दिल से यूँ मेल अब
जैसे इश्क़ हुआ न गोया कोई तमाशा है!
ऐ'जान-ए-सागर'है क्या यही जिंदगी...
आलमगीर बंदिशों को कह...
ये इख़्तियार-ए-जिंदगी भी मुक़र गई!!