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गज़ल
रुबरु जब भी उसके होता हूं,
मैं कहाँ खुद भी खुद में रहता हूं।
इक नज़र देख ले मुझे वो बस,
आरज़ू और कुछ न रखता हूं।
मांगना क्या उसे पता सब कुछ,
बारहा दर पे फिर भी जाता हूं।
उसको इंकार का है हक़ कर दे,
मुझको हक़ है मैं प्यार करता हूं।
यूं तो होती जरूर है कड़वी,
बात सच्ची मगर मैं कहता हूं।
जाने किस पर यकीं जहां को हो,
मैं तो चेहरे हजार रखता हूं।
© शैलशायरी
मैं कहाँ खुद भी खुद में रहता हूं।
इक नज़र देख ले मुझे वो बस,
आरज़ू और कुछ न रखता हूं।
मांगना क्या उसे पता सब कुछ,
बारहा दर पे फिर भी जाता हूं।
उसको इंकार का है हक़ कर दे,
मुझको हक़ है मैं प्यार करता हूं।
यूं तो होती जरूर है कड़वी,
बात सच्ची मगर मैं कहता हूं।
जाने किस पर यकीं जहां को हो,
मैं तो चेहरे हजार रखता हूं।
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