...

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तुम्हारा मिलना
एक दिन
यूं हीं किसी मोड़ पर
मिलना तुम्हारा
पर न उम्र थी वैसी
न उम्मीद ही थी बाकी
पर मौसम का मिजाज था कुछ ऐसा
कि होना ही था कुछ न कुछ अनोखा
तुम्हारा मुझे मुड़ मुड़ कर देखना
फासलों को समेटना
और तुम्हारा फैला हुआ बाहुपाश
जिसमें मैं न चाहते हुए भी
खुद को खोने की खूबसूरत
ख्वाहिश कर लेती थी
पर तुमने मुझे समेटा
और मै सिमट भी गई
यह जानते थे हम तुम
कि न यह पल आखिरी है
न सुरुआत।