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अपने पराए
अपने खोजन हम चले,मिले बेगाने लोग।
न जाने क्या हो गया,जग में अदभुत रोग।।
स्वार्थ के संसार में, लुप्त हुआ उपकार।
सब ही हासिल चाहते, नही कोई देवनहार।।
फकत राज धन का यहां, है विद्या लाचार।
करते ज्ञानी नौकरी, धनिक देय रूजगार।।
अपनो से अपनापन गया,रिश्तों से रिश्तेदार।
एकाकी परिवार है,पर बचा नही है प्यार।।
सब चाहे संसार में, अपना ही हो राज।
जोड़ तोड़ में है लगे, रत उल्टे सीधे काज।।
मां केवल संसार में, अपने पन का आधार।
बाकी बेगाने यहां,स्वार्थ मय व्यवहार।।
गर अपनापन चाहिए,देना ही होगा दुलार।
इंसा की ओकात क्या, वश पशु हुवे तैयार।।
केवल अपनों में नहीं, बांटा कीजे प्यार।
बेगाने अपने बने, कर ऐसा ही व्यवहार।।