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पन्ने डायरी के
आओ जरा समीप बैठो मेरे, तुम्हें अपने आराध्य की तरह सजा दू, अपने बीत चुके जीवन से कुछ पुष्प चुन चढ़ाऊं तुम पर, माना मैंने की इन फूलों में सुगंध कुछ वैसी भर न सका लड़खड़ा के जो गिरा तो इन टहनियों के भल भी उठ न सका, जानो तो विश्वास से भरा कैसे न लौटता तुम तक।

कहने को काफी कुछ था जब भी लौटा उस वक्त में, काश उन टूटे अण्डे तिरछे शब्दो से ही सही मन के दर्पण में तुम्हें तुझ से मिलता, और न निकलता कुछ तो तेरे माथे पर ऊंगली के स्पर्श से हर वाक्या महसूस ही सही जरूर करता जो कभी न दिखा मुझमें उन निशानों की तरफ मैं फिर से लौट आता।

मैं छलावा मान मन को तो खुद को जान बैठा, तुम ही बताओ कैसे मै कल्पना कर सकू मरूस्थल में राहत देती हवाओं की, मौनी सा जीवन गुजारा हैं शब्दो की तलाश में, आज तुम्हें इन्ही शब्दो में ही खोज रहा, और जो कभी न हुआ प्रतिपादित उन्ही चंद हिस्सो को सहेज कर, न जाने क्यू मैं फिर से ही सही अपने तक लौट रहा।

मेरा रहना भी उन लोगो में था जो मन की कोमलता को कमजोरी सी भापते हैं तो बताओ मुझे मैं कैसे निहार लेता उन अंखियों की ओर जिनमे कोमलता के राग बज रहे थे कुछ भारी पंख लिए जो फिर रहा कैसे लिखूं तुमको खुदमें कामना तो मुझे मेरे भूत भविष्य से अलग होने की तो क्यू फिर से मै खुद की तरफ लौट रहा।

~शिवम् पाल
















© शिवम् पाल