...

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" इज़ाजत "
क्यों ना समझे मर्म मेरा ?
आखिर हूँ मैं एक रचना,
फिर क्यों पड़ी पन्नों पर,
इतने दिनों से बनकर राज़ हूँ !

लिखते-मिटते कुछ सुन्दर,
अल्फाज़ो से,
मन में उमड़ते कितने ही भावों से,
बंधकर मैं हुई तैयार हूँ !


मूल्यांकन ना हो जब तक मेरा,
चले कैसे पता, कैसा है सृजन मेरा ?
क्या सिर्फ अल्फाजों की भरमार,
या फिर कमतर, सुंदर या नायाब हूँ !

पन्नों पर तन्हा ही सदा रहूँगी क्या ?
पहचान खुद की एक रखूँगी क्या ?
प्रकाशन का स्वाद कभी चखूँगी क्या ?
मांगती इन सबका हर रोज मैं तुझसे जवाब हूँ !

इतना सोच-विचार अंतर में क्यों ?
गुस्से का किसी के भय तुझमें क्यों ?
या फिर इज़ाजत पाने को किसी की,
रखती मैं दरकार हूँ !

क्यों ना समझे मर्म मेरा ?
आखिर हूँ मैं एक रचना,
फिर क्यों पड़ी पन्नों पर,
इतने दिनों से बनकर राज़ हूँ !

© Shalini Mathur