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चुनाव , एक काव्यात्मक व्यंग !!
चुनाव , एक काव्यात्मक व्यंग !!

चुनाव एक काव्यात्मक व्यंग , एक काव्यात्मक बेवकूफ़ी बन बैठा है |

व्यंग की ,राष्ट्रप्रेम और राष्ट्र हित जैसे शब्दों का सबसे ज़्यादा प्रयोग और वाद विवाद इसी दौरान हुआ है ।

व्यंग की, कल का राष्ट्रप्रेम आज का राष्ट्रवाद बन बैठा है|

व्यंग की ,औपचारिक अनुष्ठान बन बैठे अख़बार सिर्फ़ रद्दी बटोरने को लिए गए,और इन्हें पढ़ा सिर्फ़ देश की सेवानिवृत्त कॉम ने|

व्यंग की, यह देश आजकल देश वासियों नहीं बल्कि मिलेनियम , जैन ज़ी और अल्फा समुदाय में बट चुका है| मिलेनियम ने व्यस्तता की आड़ ली है और सामाजिक मीडिया की वैचारिक कलन विधि (algorhythm) ने दिया अधूरा ज्ञान अल्फा पीढ़ी को |

कीबोर्ड क्रांतिकारियों ने, जो अल्पज्ञान नाम की गोली चूसी और फिर रात भर ख़ूब की उसकी जुगाली,इस जुगाली से बन बैठे सफ़ेद झाग को नाम दिया गया “चमकदार”|

इस चमक की आड़ में दोस्तों को वाद विवाद में पछाड़ने के बाद ख़ुद की पीठ थपथपायी गई,।
इस चमक की आड़ में सेवा निरूपित समुदाय को समझाया गया राष्ट्रवाद का अधूरा ज्ञान |

और इस तरह इस चुनाव रूपी काव्यात्मक व्यंग ने ओड लिया एक काव्यात्मक बेवकूफ़ी भरी बहस का चोला|
इस घायल होती परंपरा को समझाने के लिए समसामयिकता को मलहम होने का औचित्य बताना ही एक व्यंग्य है|


चुनाव एक काव्यात्मक व्यंग्य है जिसमें शामिल होता हर एक व्यक्ति और और उस भीड़ में खड़ा मैं भी इस व्यंग का एक हिस्सा हूँ|

व्यंग यह है ,की चुनाव विचारधारा की परीकाष्ठा पर न होकर व्यक्ति संगत बन बैठा है|
व्यंग्य यह है, की संविधान में तर्कसंगत औचित्य के बजाए उसकी प्रासंगिकता पर सवाल उठ रहा है|

व्यंग यह है ,कि सांस्कृतिक प्रासंगिकता और पुरातत्व महत्वता को दरकिनार करके शहरों के बरतानियायी नामांकरण पर बहस छिड़ी है|

व्यंग्य यह है ,की समाजवाद कही जाने वाली भारत की नींव मे पैदा हुई दरार को पूंजीवादी सीमेंट से भरने को ,तरक़्क़ी की परीकाष्ठा बताया जा रहा है|

व्यंग्य यह है ,की गाँव देहात और छोटे शहर वाले ख़ुद को मेट्रो की नस्ल का हिस्सा समझने में अपने अस्तित्व का औचित्य या सफलता की प्रतिभूति समझने लगे हैं|

व्यंग्य यह है ,की आज़ादी के पहले नरम दल और गरम दल के द्वारा लिए गए कदमों की जाँच पड़ताल आज के छुटभैये कीबोर्ड क्रांतिकारियों द्वारा की जा रही है|

और व्यंग्य यह है, की ख़ुद को समझदार समझने वाले और इनमें “मैं “ भी सिर्फ़ एक साप्ताहिक क्रान्तिकारी बनके रह गया हूँ |

जो सिर्फ़ इतवार की सुबह जागता है और सोमवार की सुबह से पूंजीवादी परिवेश में ख़ुद को एल्फा समझ बैठता है|