...

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वास्तविक प्रेम
जीवन भर अनभिज्ञ रहे कि,
प्रेम आखिर है क्या...?
जब प्रेम परिभाषित हो समक्ष खड़ा था तो
उसमें छवि तुम्हारी थी...
हे कान्हा...
मैया से, बाबा से,गौ, ग्वालों से,
सखा से सखियों से,पुष्पों से, प्रेयसी से,
भाव और भक्तों से,तुमसे अधिक प्रेम
और कौन कर सकता है...?
पर जब तुम्हारे हृदय के द्वार खुले
तो सिवाय राधा नाम के
ज्योति पुंज के अलावा
कुछ और दिखाई ही नहीं दिया...।
जैसे राधा तुम्हारी प्रेयसी नहीं
यह जो तुम्हारे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संबंधी जन हैं जो तुमसे प्रेम करते हैं वो सभी राधा के ही रूप हों
हे लीलाधर,
तब से मेरी यही अभिलाषा है मुझे भी राधामयी कर देना...।
अभिव्यक्ति -सोनाली तिवारी (दीपशिखा)
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