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" गूँज अंतर्मन की "
एक आवाज़ आती अक्सर भीतर से,
जो तन-मन को बेचैन सी करती,
पलट-पलट कर चहुँओर भी देखा,
तो भी कभी कहीं नहीं वो दिखती!

बतलाया एक दिन स्नेह से उसने,
कि सुन ओ बुद्धू और पगली,
मैं हूँ गूँज तेरे अंतर्मन की,
जो तेरे अंदर ही तो रहती!

रूह और शरीर के मध्य तेरे,
सेतु का मैं काम हूँ करती,
और बनकर गूँज तेरे अंतर्मन की,
निरंतर संवाद मैं तुझसे स्थापित करती!
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